Saturday 24 February 2024

"अमीन सायानी...बचपन की आवाज़ का खामोश होना"- राजेश ज्वेल

 


उज्जैन के पटनी बाजार में तोतला भवन की पहली मंजिल का मकान और गोदरेज की अलमारी के ऊपर रखा ट्रांजिस्टर... हर बुधवार की सुबह से ही ट्रांजिस्टर का गोल बटन घुमाकर रेडियो सीलोन की सुई सेट करने में लग जाते हैं,क्योंकि बमुश्किल सिंगनल पकड़ में आते थे, कई बार तो सुई इतनी बढ़िया सेट हो जाती और साफ सुथरा प्रसारण सुनाई पड़ता मगर कई बार खराब मौसम में खटखड़ाहट के साथ बिनाका गीतमाला सुनना पड़ती..उस वक्त रेडियो सीलोन सेट करना भी घर में कॉलर ऊंची करने वाला काम माना जाता था.. बहरहाल इस सेटिंग का एक ही मकसद रहता था कि रात को 8 बजे आने वाली बिनाका गीतमाला बिना किसी बाधा के सुनी जा सकें...अमीन सायानी की जादुई आवाज के साथ पसंदीदा गीतों को उनकी पायदानों के साथ सुनने का क्या गजब आनन्द था...जो आज तमाम सुख सुविधाओं के बावजूद उतना रसीला नहीं लगता...अमीन सायानी के निधन के चलते बिनाका गीतमाला का वह सुनहरा दौर सभी को याद आ गया ..तब घर-घर में बड़े रेडियो या ट्रांजिस्टर हुआ करते थे , जिस पर क्रिकेट की कमेंट्री के साथ विविध भारती और रेडियो सीलोन पर बिनाका गीतमाला बड़े चाव से पूरा परिवार एकजुट सुनता था .. स्थिति ये रहती थीं कि बुधवार को रात 8 से 9 के बीच एक तरह का अघोषित कर्फ्यू सन्नाटा पसरा रहता ..गली मोहल्ले से लेकर मुख्य चौराहों की पान की दुकानों पर भी तेज आवाज में बिनाका गीतमाला बजती थी और झुंड बनाकर लोग उसका आनंद उठाते ...इसी तरह का मजमा फिल्म शोले के वक्त भी नज़र आया..जब उसके डायलॉग पान की दुकानों पर इसी तरह गूंजते थे... अमीन सायानी के साथ ही बचपन की वो एक आवाज भी खामोश हो गई... जिसको सुनते हुए हम सब बढ़े हुए.. हालांकि आज कारवां सहित तमाम माध्यमों के जरिए अमीन सायानी की आवाज कानों में गूंजती रहती है और हमें अतीत के गलियारों में उंगली पड़कर ले भी जाती है ...क्या शानदार दौर था और क्या शानदार लोग थे...आज की पीढ़ी ऐसे आनंद और नॉस्टैल्जिक इफेक्ट से अछूती ही रहेगी... अलविदा अमीन भाई... आप सदैव उस दौर की बहनों और हम भाईयों के दिलों में रहोंगे... आमीन 💐@ *राजेश ज्वेल*
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"चवन्नी पर कॉमिक्स"- दीपक कुमार सिंह

 


 
ये उस दौर की बात है जब चवन्नियाँ बँद नहीं हुई थीं और दो चवन्नियों के मेल से बनी अठन्नी में दिन भर के लिये एक अदद कॉमिक किराये पर ली जा सकती थी। अस्सी का दशक था जब धूप में खेलने के लिये माँ बाप सनस्क्रीन लोशन नहीं दिया करते थे। गरमी की दोपहरों में किसी भी दोस्त के घर की छत का छाँव वाला कोना पकड़ा जाता था और अठन्नियों के किराये पर लाई कॉमिक्स पढ़ कर दोपहर गुज़ारी जाती थी।
कम्प्यूटर आज जितने आम न थे तब, सो समय बिताने के लिये कम्प्यूटर पर किट पिट करने की बजाये उससे तेज़ दिमागवाले चाचा चौधरी की संगत की जाती थी, झपट जी - पिंकी और बजरंगी पहलवान को चकमा देते आँखों को ढँके बिल्लू के साथ गरमी की छुट्टियाँ बिताई जाती थी। निक्कर पहनने की उम्र थी सो नागराज - ध्रुव से तब जान पहचान नहीं हुई थी।
मुहल्ले के सयाने लड़के सुतली में कॉमिक्स लटका के किराये पर कॉमिक्स का साम्यवाद चलाया करते थे, जिसमें कभी किसी कॉमिक के पेज पर सूखी हुई दाल के चपके निकलना या आलू के शोरबे से चिपके पन्ने निकलना आम बात थी, कॉमिक्स पढ़ कर हाथ धोने पड़ते थे। या फिर अगर किसी रिश्तेदार ने जाते जाते कुछ रुपये टिका दिये तो पूँजीवादी बन कर एक आध कॉमिक खरीदने की औकात लिये हम रेलवे के ए.एच.व्हीलर के स्टॉलों के चक्कर लगाते थे।
कॉमिक्स खरीदने के पहले हर चीज़ पर ध्यान दिया जाता था - कॉमिक कितने पेज की है, कितनी देर चलेगी (कितनी देर तक पढ़ी जा सकती है), साथ में स्टीकर है या नहीं, इसकी एक्सचेंज वैल्यू और रिसेल वैल्यू क्या होगी।
गरमी की छुट्टियों में एक बार ट्रेन लेट होने की वजह से हमें उड़िसा के झारसुगुड़ा स्टेशन पर रात में कुछ घण्टे बिताने पड़ गये। रेलवे स्टेशनों का अपना अलग चार्म होता है, और उसपे सोने पे सुहागा होते हैं ए.एच.व्हीलर के स्टॉल्स। जब बीस मिनट में उस स्टॉलरूपी तीर्थ की बारम्बार प्रदिक्षणा और गरीब दयनीय मुखमुद्रा बनाने के कठोर तप से मैं कुछ पचासवीं बार गुज़र के, छः वर्षीय अक्ल में आने वाले हरसंभव पैंतरे को आज़मा चुका तो मेरे माता-पिता को मुझ पर दया आ ही गई, उन्होंने कॉमिक्स के लिये तथास्तु कहा या मुझसे पीछा छुड़ाने के लिये, हम उसकी गहराई में नहीं जायेंगे।
जितनी देर में मम्मी मेरे साथ स्टॉल तक चल कर पहुँचीं उतनी देर में मैंने अपनी सोच की औकात से दस बारह पँच वर्षीय योजनायें बना बिगाड़ कर खारिज भी कर दी थी।
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"ओ हमारे प्यारे रेडियो" - देवेन मेवारी

 


आज फिर विश्व रेडियो दिवस ने हमारे इस प्यारे रेडियो की याद ताज़ा कर दी।
चमड़े के भूरे खोल में सजा यह फिलिप्स कमांडर रेडियो ट्रांजिस्टर हमने अपनी शादी के बाद सन् 1969 में समाचार, गीत और बिनाका गीतमाला सुनने के लिए हल्द्वानी, नैनीताल के बाज़ार से खरीदा था। तब मैं पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय में नौकरी कर रहा था। घर इसमें बजते गीतों की धीमी आवाज से गूंजता रहता था। राष्ट्रीय समाचारों के अलावा मैं इस पर बीबीसी, वॉयस ऑफ अमेरिका और वॉयस ऑफ जर्मनी के विज्ञान कार्यक्रम और समाचार सुना करता था। तब मन में कहीं रेडियो समाचार वाचक बनने का भी सपना देखता था। एकांत में समाचार पढ़ने का अभ्यास किया करता था।
फिर नौकरी बदलने पर
यह हमारे साथ लखनऊ चला आया। वहां सन् 1984 में घर में टीवी आ गया। उसके बाद रेडियो सुनना धीरे-धीरे कम होता गया। लेकिन, आकाशवाणी पर प्रसारित होने वाली अपनी विज्ञान वार्ताएं इस पर सुनता रहता था।
साढ़े सात साल बाद फिर नौकरी बदली। लखनऊ से हमारा रेडियो भी हमारे साथ दिल्ली आ गया। दिल्ली में भी इस पर अपनी वार्ताएं और अन्य प्रोग्राम सुनते रहे।
लेकिन, कुछ वर्षों के बाद इसकी तबीयत खराब रहने लगी और आवाज़ धीमी पड़ गई। रोग समझ में नहीं आया। बल्कि, बाहर से तो देखने पर यह बिल्कुल तंदुरुस्त नज़र आता था। हमने काफी दौड़-धूप के बाद सफदरजंग एंक्लेव के निकट अर्जुन नगर की एक गली में किसी तरह रेडियो का एक देसी डॉक्टर खोज निकाला और उसकी सलाह मान कर इलाज के लिए यह उसे सौंप दिया। कई दिन तक फोन पर उससे पूछते रहे कि क्या हुआ, क्या हुआ? वह हर बार यही कहता कि ठीक कर रहा हूं।
परेशान होकर एक दिन सीधे उसकी छोटी-सी रेडियो क्लिनिक में पहुंचे तो मरीज का हाल देख कर दिल बैठ गया। हमने देखा, उसने मरीज का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा अलग कर मेज पर रखा हुआ था और खुद हैरान होकर समझने की कोशिश कर रहा था कि कौनसा पुर्ज़ा कहां जोड़ा जाए। मैंने घबरा कर मरीज का हाल पूछा तो बोला, बस जोड़ने ही वाला था, अभी ठीक हो जाता है। हम बेबस होकर खड़े रहे और कहा- जल्दी जोड़ो और वापस करो। न जाने उसने कितने पुर्ज़े जोड़े, कितने छोड़े। फिर ऑन किया, बटन घुमाए, और..और मरीज की जैसे एक दर्द भरी कराह निकली।
मैंने झपट कर उसके हाथ से अपना यह बीमार रेडियो ले लिया। मरीज को गोद में संभाल कर पकड़ा। उस नीम-हकीम को पैसे दिए और घर लौट आए। सोचा, अब घर पर ही स्वास्थ्य लाभ कर लेगा।
यह आज भी हमारे पास है। एकाध स्टेशन पर इतने वर्षों बाद यह आज भी बोलता, गाता है, कराहते हुए ही सही। लगता है, हमारे प्यार में कर लेता है यह सब।
बहुत प्यार प्यारे कमांडर।
(हमारा वही प्यारा कमांडर रेडियो, फोटो : ॠचा मेवाड़ी)
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"मकर संक्रान्ति" - विजया एस. कुमार


मकर संक्रांति आते है ही बरबस मेरे नथुनों में वो महक बसने लगती हैं, जो गाँव में मेरे अम्मा के चूल्हे से आती थी इन दौरान बनने वाली- लाई,तिल,गुड़हा तिल पट्टी और बादाम पट्टी।पर इन सबसे इतर ही एक और स्वाद थी जो आज तलक मेरी जिव्हा पर ज्यों का त्यों ही बिराजमान है।वो स्वाद थी - आड़े के औंटे हुए लाल दूध या उसमे जोरन डाल जमाई गई लाल दही का,अपने ही खेत के गन्नो से पके गुड़ और "ढेंकी" में कूटे अपने ही खेतों के धान के चूड़े का।
ढेंकी वस्तुतः एक प्रकार का लकड़ी निर्मित यंत्र,जो कि की स्वचलित मशीनी हालरो या मिलो के अस्तित्व में आने से बहुत पहले मानव द्वारा चलित है।यह आम तौर पर एक लंबे लकड़ी का पट्टा होता है जो कि बीच से दो अलग लकड़ी के पाटों के बीच लकड़ी या लोहे की कील से ठीक वैसे हीं अटका होता है जैसे कि आजकल के बच्चो के पार्क में मिलने वाला शी-शॉ झूला।पट्टे की आगे की तरफ लकड़ी की ही मुसलाकर आकृति लगी होती है जिसके ऊपरी हिस्से में लोहे का आवरण चढ़ा होता था।इस आवरण को जगह देती है धरती में बनाये गये गड्ढे (ओखल की आकृति)जो कि अमूमन एक हथेली घूमने भर जगह होती थी,जिसमे मुसल आराम से पड़ सके।वही ढेंके का पिछला हिस्सा होता था नीचे की ओर संकरी होती हुई पाट का हिस्सा जिसमें रहट पड़े होते थे ताकि पैर फिसले नही इस ढेंके को चलाते वक्त।इस पिछले हिस्से के नीचे भी इसके माप से हल्की बड़ी एक खुंदक होती थी और जब चलाने वाले ( अमूमन औरतें) इस हिस्से पर दबाब देते थे तो ढेंके का वो हिस्सा खुंदक में जाता था और आगे का हिस्सा उठता था,जैसे ही दवाब कम होता था आगे का हिस्सा ओखल में गिरता था और उसमें रखे अनाज पर चोट पड़ती थी,इस प्रकार दबाब को कम ज्यादा कर अनाजों की छटाई कुटाई की जाती थी।इसमें एक और महत्वपूर्ण अंग होते हैं ओखली के पास बैठने वाले जो मूसल के ऊपर से नीचे जाने क्रम के बीच मे अपने हाथों से अनाज को उलट पलट करते हैं।थोडी सी भूल और हाथों पर मूसलों का गिरकर उसकी हड्डियों का चूरा बनना।वही अगर अनाजों की पलटी अच्छी नही हुई तो अनाज का खराब होना।ठीक वैसा ही हाल उस ओर के साथी का भी, एक तो एक पाँव से ढेंके को दवाब देकर चलाना और अगर थोड़ा भी ध्यान भटका तो मुँह के बल गिरना और पाँव और थुथुनो दोनो का ही सत्यानाश।
आज भले ही मशीनी मिलों और हालरों ने इस जटिल प्रक्रिया को बहुत आसान कर दिया है पर सच जिन लोगों ने उस महीन और धीमें धीमें कूटे चुड़ों और अनाजों का रसास्वादन किआ है उनके जिव्हा से आजीवन वो स्वाद जाने से रही।मैने अपने घर मे ढेंका कूटते देखा है बचपन में।ओखल में डर से हाथ डाल चलाया तो नही पर ढेंका के पिछले हिस्से में खूब उत्साह के साथ दवाब दे उसे कुटा है।एक अलग ही माहौल होता था जब एक ही जगह पर घर की लगभग सभी औरते धान को चुनती कोई उसे ओखली में डाल चलता तो कोई ढेंके को चलाता,फिर उन कूटे अनाजों को हिलोरा और सुप में डाल फटका जाता और तब तैयार होता था खाने के लिए चूड़ा या चावल या दाल।आज की तरह झटपट नही की मेगास्टोर गए खरीदा और थाली में परोस दिया गया।ऊपर से औरतों द्वारा गाये जाने वाले कर्णप्रिय गीत - जिन्हें गीतों के वर्गीकरण में श्रम गीत कहते हैं। जैसे कि -
"बाबा काहे लागी बढ़ल लामी केसिया
बाबा काहे लगी भइल मोर बैरन जवनिया
बाबा जे बाटे गइले पियवा मधुबनिया
से बटिया तुहु रे बताई दिहत ना।
बेटी झारी ल रे लामी लामी केसिया
कस के बान्हि लS अपनी अंचरिया
जे बाटे गइल तोर पिया मधुबनिया
से बटिया भइले मलीनवा रे ना।"
(यानी एक पुत्री अपने पिता से कहती है कि क्यों मेरे बाल नित बढ़ रहे हैं और क्यों ही मैं जवान हो रही हूं?हे पिता जी मुझे वो रास्ता बता दो जिस रास्ते मेरा पति मधुबन गया है।
जबाब में विवश पिता उत्तर देता है की हे बेटी अपने लंबे बालों को बांध लो और अपने आंचल को बांध लो,जिस रास्ते तुम्हारा पति गया है वो रास्ता खराब हो चुका है)
इन्ही गीतों के माध्यम से वो अपनी कुंठाये निकालती थी। सिर्फ दुखियारी गीतों के साथ ही नही ढेंका ठिठोली के साथ भी खूब जमती थी। जैसे कि -
"कंहा के रे मूंगा मोती,कहां के रे छींट गे सजनी
कहां के रे राजा बेटा जोड़ावे प्रीत गे सजनी
भागलपुर के मूंगा मोती,आरा के रे छींट गए सजनी
पटना के रे राजा बेटा जोड़ावे प्रीत गे सजनी।
(यानी पहली सखी पूछती है- कहां का मूंगा और मोती प्रसिद्ध है और कहां के छीट प्रसिद्ध हैं, तो कहां का राजा का बेटा है जो मुझसे प्रीत लगा रहा है।
दूसरी सखी उत्तर देती है कि भागलपुर का मोती मूंगा प्रसिद्ध है और आरा की छींट की चुनरी,वहीं पटना के राजा का बेटा है जो तुझसे प्रीत लगा रहा है।)
पर समय की मांग,इसकी अनुलब्धता,संयुक्त परिवार का विघटन इसके विलुप्ति का कारक बना है, फिर भी हमारे जैसे कुछ घरों में नेवान( नए अनाज को भगवान पर चढ़ाने की रस्म) के लिए ही सही साल में दो तीन बार इनका रस्मी कार्य अदायगी होती है,आज गांव में भी बस ये इक्का दुक्का घरों में ही सिमट कर रह गया है।नेवान भी अब छोटे खल मूसलों से होने लगा है।
अगर इन गीतों और ढेंके के किस्सों से भी आपके मकर संक्रांति के चूड़े में मिठास बढ़ी तो मेरे लिए वही प्रोत्साहन होगा,बाकी त जे है से हइए है।
विजया।
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"याद किया दिल ने कहां हो तुम" - ध्रुव गुप्त

 


कल गूगल पर मचान की एक तस्वीर देखी तो बचपन के कई भूले-बिसरे पन्ने खुलने लग गए। हमारे बचपन का एक एडवेंचर ये मचान भी हुआ करते थे। गांव में होते हुए भी गांव वालों के लिए अदृश्य हो जाने का एडवेंचर। ज़मीन पर होकर भी ज़मीन से थोड़ा ऊपर उठ जाने का रोमांच। रात में ये मचान खेतों की रखवाली करने वाले मर्दों के हवाले होते थे। दिन में इनपर टोले के बच्चों की बादशाहत चलती थी। इन मचानों ने बहुत सारे खेलों को जन्म देने के अलावा थोड़ा-बहुत रूमान भी पैदा किया था हमारे मन में। रूमान का मतलब जाने और समझे बगैर।तब मेरे गांव में बच्चों का सबसे प्रिय खेल हुआ करता था कनिया-दूल्हा। मचान पर जमा चार-छह लड़के-लड़कियों में लड़कियों को यह अधिकार होता थाकि अपना स्वयंबर रचाकर अपना दूल्हा वे स्वयं चुन ले। ब्याह में लड़के सिंदूरदान की जगह मिट्टीदान करते थे। मुंहदिखाई या उपहार में लड़कों को अपनी-अपनी दुल्हनों को बस कुछ अच्छा खिलाना पड़ता था। मसलन घर से चुराकर लाए गए ठेकुए, लड्डू, खुरमा, हलवा। यह सिलसिला सालों तक चला था। कल ब्याह का वह मचान मंडप याद आया तो यह भी याद आया कि तब कुल मिलाकर दर्जन भर पत्नियां तो आ ही गई थीं मेरे हिस्से में। अब वो कहां और किस हाल में हैं, यह पता नहीं। कहीं दादीत्व और नानीत्व के सुख भोग रही होंगी शायद। क्या पता उनमें से दो-चार यहां फेसबुक पर भी हों। हां, मचान पर चढ़ने लायक तो नहीं ही रह गई होंगी वो। बहरहाल मेरी वे मचानी पत्नियां अभी जहां और जैसी भी हों, उनकी बहुत याद आ रही है आज।
पता नहीं मेरी उन दर्जन भर निष्ठुर पत्नियों को अपने इस बेचारे परित्यक्त पति की याद भी आती भी होगी कि नहीं !
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"जाड़ों के वे दिन" —राम अयोध्या सिंह

 

क्या वे भी जाड़े के दिन थे। चाहकर भी मैं अपने बचपन के दिनों को भूला नहीं पाता। खाने के मामले में जाड़े का मौसम वास्तव में मौसम का बादशाह था। गर्म या ऊनी कपड़े भले ही पहनने को नहीं थे, पर खाने और खेलने से ही शरीर में इतनी गर्मी रहती थी कि कपड़े की जरूरत ही महसूस नहीं होती थी। सुबह उठते ही शौच के बाद बरामदे में बोरसी के पास या धूप में बैठकर बासी भात और चने-सरसों की साग और साथ में आम के अचार का तो कहना ही क्या? एकदम लसारके खाइये, कोई हर्ज नहीं। इसके बाद दो घंटे तक गाँव की गलियों, खलिहान या दालान पर साथियों के संग खेलिए। पता ही नहीं चलता था कि पेट कब खाली हो गया? इसके बाद फिर से स्कूल जाने के पहले गरमा-गरम भोजन का इंतजार। भाप निकलता भात, मटर की हींग से तड़का लगी दाल, आलू-बैगन और मटर की तरकारी और कभी जल्दबाजी में सिर्फ भात और तरकारी खाकर ही झोला उठाकर दो किलोमीटर दूर संदेश स्कूल में पढ़ाई के लिए रवाना।

स्कूल से लौटकर फिर वही दिन वाला खाना, और गांव में खेलकूद, मारपीट और दौड़ा-दौड़ी। कबड्डी, बुढ़िया कबड्डी, चिक्का, बांड़ी चिक्का, लुकाछिपी या कभी रबर की गेंद का खेल। खेलते-खेलते ही पुनः भूख का एहसास होने लगता था। यूँ समझिये कि खाना और खेलना ही हमारा प्यारा शगल था। पढ़ाई ऊपर-झापड़ ही होती थी, और उतनी ही होती थी, जिससे स्कूल में माट्साब से पीटें नहीं, और परीक्षा में पास हो जायें। अंधेरा घिरते ही पेट भोजन के लिए कुलबुलाने लगता था। तब हमारे गाँव में सुबह, दिन और रात सिर्फ भात ही लोग खाते थे, खासकर जाड़े के दिनों में। रात में फिर वही भात, मटर की दाल और आलू, बैगन, मटर और सेम की तरकारी। कभी-कभार भात और तरकारी से भी काम चल जाता था। मुझे तो भात और तरकारी आज भी अच्छा लगता है। अगर घर में चने की साग है, तो शायद ही तरकारी की जरूरत पड़ती थी। चने की साग में हरी मिर्च, हरे लहसुन की पत्तियाँ और सरसों का तेल या अचार का मसाला मिलाया जाता था। इसके बाद कौन कहाँ तरकारी खोजता था? भात और साग लसारकर खाइये। कभी-कभी कोबी (गोभी) की तरकारी भी मिलती थी, पर ऐसा कभी-कभी ही होता था। हाँ, कोहड़ा, कद्दू और नेनुआ की तरकारी जरूर मिलती थी। इसके पौधे हर कोई अपने घर के छप्पर या आलान पर चढ़ा देता था। कच्चे कोहड़े की तरकारी ही मुझे अच्छी लगती है। पक्के कोहड़े की तरकारी मैं आज भी पसंद नहीं करता हूँ। कद्दू और नेनुआ की तरकारी कैसे भी करके बनाई जाये, मुझे पसंद है। इनके साथ मैं भात सानकर आराम से खाता था। अगर इसके साथ मट्ठा मिल जाये तो फिर बात ही क्या? कोहड़े के पत्ते की साग भी मैं बड़े चाव से खाता था। अब तो यह मिलता ही नहीं।

पर, जाड़े में भात, चने की साग, दाल, तरकारी, चोखा, अचार और दही या मट्ठे के अलावा चूड़ा और लाई भी अफरात में मिलता था। चूड़ा तो कातिक माह से ही शुरू हो जाता था, जब कतिका धान पकने पर आता था। पकने के पहले ही उसे खेतों से काट लिया जाता था, और घर की औरतें आंगन में ही पीटकर धान निकालती और फिर ओखल में मूसल से कूटकर चूड़ा बनाती थीं। हरे धान की सौंधी महक वाले चूड़े की बात ही कुछ और थी। कितना भी खाइये, पेट तो भर जाता था, पर मन नहीं भरता था। इसके अलावा लाई (चूड़ा, चावल, धान, बाजरा, ज्वार) की भी भरमार होती थी। कौन कितना खा रहा है, इसकी कोई गिनती नहीं थी। वैसे भी यह भोजन में गिना भी नहीं जाता था। इसे लोग ऊपरवार मानते थे। चूड़ा और लाई के अलावा सोंठ और मेथी के लड्डू भी बनते थे। इन सब कामों में मेरी आजी गाँव में चुनिंदा थी। लोग उसे अपने घर खुशामद करके बुलाते थे। जाड़े भर में हर कोई इतना जरूर खाता था कि उसके शरीर के ऊपर चर्बी दिखाई पड़ने लगे। यहाँ तक कि पशुओं का शरीर भी मोटा-ताजा होकर चमकने लगता था। पर, इन सबसे ऊपर था मटर और फिर चने का होरहा, जिसे बधार में किशोर वय के लड़के और नवजवान तैयार करते थे, और जो बच जाता था, वह घर की औरतों के लिए होता था। होरहे के साथ आजवाईन मिला नमक, हरी मिर्च, अदरक और कभी-कभी नींबू की नीमकी भी हाथ में लोग खाते थे। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि गांववाले भी खुद इनके लिए तरस रहे हैं। चने और मटर की खेती गाँव से खत्म हो गई है। मौसम में कभी मिल जाये, तो इसे सौभाग्य ही लोग समझते हैं।

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"मेले में भोंपा" —चंचल

 

गाँव में कातिक अगहन, ये दो महीने मेला-ठेला के होते आये हैं। धान की फ़सल कट कर सटकने के लिये समथिया जाती रही। इसी में मेला का खेल शुरू होता था। आँखन-देखी और आप-बीती बताऊँगा, तो कल और आज के बीच आया बदलाव साफ़ साफ़ समझा जा सकेगा। उस जमाने में कोई भी काम तुरतिहानहीं था, आहिस्ता-आहिस्ता अपने उफ़ान पर पहुँचता था। ज़िंदगी हो, उत्सव हो, उत्पादन हो या बात बतकही हो, या फिर प्यार-व्यार ही क्यों न हो— सब आहिस्ता-आहिस्ता ही शुरू होता रहा, आज की तरह तुरतिया संस्कृति नहीं आयी थी।

आज विजय दशमी है। इस दिन को कुछ ख़ास ख़ास स्थानों पर ही विजय दशमी का मेला लगता रहा। इस तारीख़ का इंतज़ार गाँव हफ़्ते भर पहले से शुरू कर देता था। नये कपड़े बनते, पुराने रेहिआये जाते ।

-रेहिआये? ऐसा अंग्रेज़ी मत ठेलो कि पल्ले ही ना पड़े!

-इसे सीधा कर लो, अंग्रेज़ी बोलूँ, तो तुरत समझ जाओगे। यह जो अंग्रेज़ी है न, तुम्हारे पल्ले नहीं पड़ती, फिर भी समझ में आ जाती है, क्यों कि तुम अंग्रेज़ी का पल्लू थामे दौड़ रहे हो, कितना भी लतियाये जाओ, छोड़ोगे नहीं अंग्रेज़ी, क्योंकि अब तक अंग्रेज़ी भाषा थी, आज बाज़ार की सामग्री है और यह सामग्री तुम्हारे ज़रूरी ज़रूरियात है। मसलन टूथ पेस्ट, ब्रश, कोल्ड ड्रिंक, कुरमुरे, बिस्कुट, कहाँ तक गिनायें। वो भाषा, जो किसी सामग्री के साथ दासी के रूप में आती है, उसे पढ़ना या समझाना नहीं पड़ता, अगला कदम बढ़ाने के लिये उसे गेल में डाल लेना पड़ता है। अब देखो- अस्सी के फेटे में खड़े लम्मरदार, जो आज भी आदिम युग का प्रतिनिधित्व करते हैं, कुतिया छाप मारकीन की बँहकटी बंडी और लट्ठे की मोटी मटमैली धोती घुटने के ऊपर लपेटे, केवल लिबास से ही पीछे नहीं रह गये हैं, खानपान, रहने का सलीका भी वही पुराना ही है। और तो और- विकास (?) की हर तकनीक और कारख़ाने के छली उत्पाद के मुखर विरोधी भी हैं। घर में चाय-बिस्कुट, कप-प्लेट तक वर्जित है, आज भी वे जल जलपान में चना-चबैना और गुड़ से मेहमानों की आवभगत करते हैं, लेकिन कल की बात है, लबे सड़क उनकी आमद ने गाँव को चौंका दिया। भूरे रंग का चड्ढा, जिसके दोनों जाँघों पर तीन-तीन इंच की तीन-तीन लाल की धारी छपी हुई, ऊपर नारंगी रंग की टी-शर्ट, सीने पर अंग्रेज़ी में  रब मी नाटकी मोटी काली लिखावट में हौले-हौले चले आ रहे हैं, कंधे पर तीन-चार साल का एक लड़का चीख़ता-चिल्लाता लम्मरदार का सिर पीटता बैठा है। गाँव कनमाना कर खड़ा हो गया। उमर दरजी, जो लछमीना के ब्लाउज़ का नाप ले रहा था, लम्मरदार को इस भेस में देख कर चौंक गया, फ़ीता लिये दिये दलान से बाहर आ गया,

-लम्मरदार, तू?

-हम ही अही, बोल।

उमर कुछ बोलते, उसके पहले कंधे पर बैठा लड़का सप्तम में आ गया और लगा जोर-जोर से हाथ पाँव चलाने। उमर ने दूसरा सवाल दागा,

-ई लड़िका के अहय?

-नाति अहय, तुन्नी क छोटका लड़िका, सुबहय से टोन-टी“, “टोन-टीकिए जात बा।

इस वाक़ये का अंत हुआ राम लाल गुप्ता की दुकान पर जाकर, जब लड़का लम्मरदार के कंधे से उतर कर दुकान में घुसा और अपनी पसंद का बिस्कुट लेकर बाहर निकला, तब तक लम्मरदार अंग्रेज़ी भाषा का एक शब्द कंठस्थ कर चुके थे।

गाँव में केवल शहरी उत्पाद और उस पर चिपकी भाषा ही नहीं आ रही, साथ-ही-साथ गाँव अपना उत्पाद तो ख़त्म कर ही रहा है, अपनी शब्द-सम्पदा को भी गँवा रहा है। रेहिआनाकपड़ा धोने की एक क्रिया रही, जो मुफ़्त सुलभ एक नैसर्गिक उत्पाद था/है। रेह मिट्टी का एक प्रकार है, जो छारीय होती है। साबुन, डिजर्जेंट, लिक्विड आदि आने के पहले भारतीय उपमहाद्वीप में कपड़े की धुलाई इन्हीं प्राकृतिक उत्पादनों से ही होती थी। कपड़े की और बाल की सफ़ाई के लिये वनस्पतियाँ का बहुतायत से प्रयोग होता। इनमे रीठा,तिल की पत्तियाँ, घृतकुमारी (एलोबेरा) प्रमुख और सर्वसुलभ हैं। गाँव की सामूहिक विनमय प्रथा, समाज की हर समस्या की खोज पर ज़िंदा और स्वावलंबी रहा। कपड़े की सफ़ाई भी उनमें एक था और इस काम को अंजाम देने वाले धोबी थे। कपड़े ले जाते रहे और बकरी की लेड़ी के साथ सान कर कपड़ों की भीनने के लिये रख देते। तीन चार दिन बाद इन कपड़ों की धुलाई करते। इसे रेहियाना कहते हैं। यह बात बता रहा हूँ, जब भारत टटकै आज़ाद हुआ था, दुनिया द्वितीय विश्वयुद्ध से गुजर कर टूट चुकी थी, उसी मुहाने पर भारत को तबाह करके अंग्रेज यहाँ से विदा हुए थे। हर तरह की क़िल्लत से भारत गुजर रहा था, सिवाय एक आंतरिक ख़ुशहालीसे, क्योंकि भारत गाँवों का देश है और गाँव की सबसे बड़ी पूँजी है- उसकी सहनशक्ति और अभाव में स्वप्निल भविष्य की अभिलाषा। उस जमाने में मेलागाँव का उत्सव पर्व होता था। हमारे इलाक़े में तीन-चार बड़े मेले लगते, बाक़ी इलाक़ायी। हम बच्चों को इत्ती दूर पैदल कहाँ जाओगे, गाँव भी तो वही मेला लगेगा, जम के देखा जायगा -बोल कर फुसलाया जाता और हम मान भी जाते ।

उन दिनों हमारे गाँव के बिलकुल नज़दीक एक गाँव है- क़ोल, हम बच्चे सज-धज कर कोल क मेलादेखने की तैयारी करते। बालों में सरसों का तेल, आँख में काजर चभोरे चलते मेला देखने। गाँव के मानिंद लोग इस मेले के आयोजन में भरपूर सहयोग करते। हमारे जमाने में इन आयोजकों में चरित्तर तिवारी, नन्हकू सिंह, शोभा सिंह वग़ैरह बड़ी मुस्तैदी से लगे रहते। प्लास्टिक तब तक गाँव में नहीं आया था। बच्चों के खिलौने भी गाँव के उत्पाद से तैयार किए जाते। उस जमाने में ताड़ के पत्ते से झुनझुना और भोंपा बिकता था, क़ीमत एक छेदहवा पैसाऔर इतने का ही भोंपा मिलता। मेले में बमुश्किल से तीन या चार तरह की मिठाई बिकाती थी- गट्टा, दो तरह की जलेबी (चिनीअहिया और चोटहिया) और एक मशहूर और सस्ती मिठाई होती थी, उसे कंकड़हिया मिठाई बोलते थे, चीनी गला कर छोटे छोटे साँचे में ढाल कर बनायी जाती। इसमें हाथी, ऊँट, मछली वग़ैरह के साँचे होते। अंत में रावण जलता उसके पेट में रखा पटाखा फूटता और यही पटाखा बताता की अब मेला विसर्जित हो गया। दुअन्नी में मेले का आनद बटोरते हम बच्चे भोंपा बजाते घर लौटते।

अब सब बदल गया है। सिक्के तक।

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"अमीन सायानी...बचपन की आवाज़ का खामोश होना"- राजेश ज्वेल

  उज्जैन के पटनी बाजार में तोतला भवन की पहली मंजिल का मकान और गोदरेज की अलमारी के ऊपर रखा ट्रांजिस्टर... हर बुधवार की सुबह से ही ट्रांजिस्टर...